एक अतिव्यस्त पाठ्यक्रम के सफलतापूर्वक समापन के उपरांत जब घड़ी देखी तो 5:30 हो रहा था,उदासी बड़े मोहब्बत से मेज के पास खड़ी थी अपने बांहों के घेरे में लेने के लिए।मुझे भी लगा कि एहसास तो कर लूँ शिद्दत से कि पिछले 15 दिनों से जिनका साथ था,उनसे अब कल से भेंट नहीं होगी।तो लैपटॉप खुले ही छोड़ दिया और स्वागत किया उदासी का कि हम पन्द्रह दिनों बाद फुरसत से मिले थें।
यह उदासी तब और बढ़ गई जब याद आया कि पिछले पन्द्रह दिनों से मेरे घर में चीनी की खपत कुछ कम हो गई थी किसी की मीठी बोली ने इतनी मिठास घोली थी मेरे कमरे में।किसी ने मातृत्व का ऐसा घेरा बनाया था कि इस अहसास ने मन को मनभर भारी कर दिया है कि कल से अब इस घेरे से मैं स्वतंत्र रहूंगी,जबकि चाहत ऐसी नहीं है।दिल में रह-रहकर यह बात आ रही थी कि एक दौड़ लगाऊँ और पहुँच जाऊँ बहनों के पास,भाभी के पास।
जब हम किसी भी प्रकार के आयोजन में भाग लेते हैं तो उसकी सफलता के मानक क्या होने चाहिए?एक प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेना! कुछ प्रशंसा सुन लेना!थोड़ी अपनी टूटी- फूटी,तुतलाती सी भाषा और भाव में स्व को व्यक्त कर लेना?
किन्तु मेरे पास कुछ अलग मानक हैं कि स्व से भी भेंट हुई क्या इस यात्रा में?यदि स्व से भेंट होती रहती है तो अतिउत्तम।लेकिन क्या और गहरे उतरे स्व में?यदि निराशा के बादल छाए थे तो क्या वे कुछ छंटे!या आशावादी नींद में सोए थे अतिआत्मविश्वास की चादर ओढ़,तो क्या नींद खुली!क्या कुछ नये मित्र बने!कुछ नये ज्ञान के स्रोत मिले!कुछ नयी राह मिली चलने के लिए!
इसका उत्तर मैं अपने लिए हां में देकर शब्दों के जाल में स्वयं को नहीं पड़ने दूंगी।कर्म और तदनुरूप आचरण सबसे बेहतर उत्तर है कि हम जो किसी यात्रा को आरंभ करने के पहले थें,वही तो नहीं बने रह गयें यात्रा की समाप्ति पर!
खैर,उदासी में रहने का अपना आनंद है लेकिन यह उदासी भोजन पकाकर नहीं देती इसलिए संध्या भोजन की व्यवस्था के लिए उठी और दरवाजे को खोलकर बाहर देखा तो घड़ी की सुई 6 बजा रही थी किन्तु अबतक बाहर फैले उजाले ने बड़ा तोष दिया मन को कि गर्मियों के दिन लौट रहें हैं...
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