यदि किसी स्त्री को अपने देह की चपलता-लयात्मकता पर अभिमान हो,किसी पुरुष को अपने देह सौष्ठव पर अभिमान हो तो पंडित जी को देखने मात्र से उसका यह अभिमान मिट जाता है।उनके पद-चाप और पैर में बँधे घुँघुरूओं की आवाज एक अलग ही लोक का सृजन करती हुईं सी प्रतीत होती हैं।घुंघरूओं के झनकार से भला क्या बादल गरजते हैं!कि बिजली कड़कती है!कि कन्हैया के लिए जशोदा मैय्या पुड़ी-खीर बनाती है और कड़ाही में पुड़ी छनने की आवाजें आती हैं घुंघरूओं के झनकने से!जीवन का यह महाआनंद है कि मैं इसका उत्तर दूं,हाँ।
हम साधारण मनुष्यों के भाग्य में ऐसे दिन भी आए थे जब घुंघरूओं के बजने मात्र से यह सब होता था जबकि आसमान साफ और स्वच्छ था उसदिन।और कन्हैया तो द्वापरयुग में थे जबकि हम कलियुग में ऐसा सुन रहे थे और संगीत के माध्यम से अपने कन्हैया को बड़े चाव से पुड़ी-खीर खाते देखते हैं।सामान्य कद-काठी से सिंह-गर्जना,हाथी का चिग्घाड़,आसमान में मंथरगति से लुढ़कता चन्द्रमा,भोर और साँझ की झाँकी,नदी में इठलाती नाव का छप-छपाक करता चप्पू, सरोवर में संतरण करते मेढ़क,तैरते बतख,मराल की चाल, शश-चिंहुक और मृग-चौकड़ी उनका नृत्य जाने ऐसे कितने दृश्यों को सृजित करता है एक छोटे से मंच पर;जहाँ हजारों की भीड़ संकटमोचन महाराज के मंदिर में ठसाठस भरी हुई थी लेकिन पंडित जी जब मंच पर आते हैं तो मानो लगता है वहाँ कोई नहीं है।सबको संगीत के माध्यम से पंडित जी आध्यात्म के उस मार्ग पर ले चलते से प्रतीत होते हैं जिस आध्यात्म को हम रोजमर्रा के जीवन में भुलाए बैठे होते हैं,जिसके प्रति अविश्वास से भरे होते हैं।
चेतनतत्त्व कि क्या बात हो!पंडित जी जब मंच पर आते हैं तो जहाँ तक उनके नृत्य की मधुर आवाज जाती होगी,पत्थर भी आतुर हो उठते होंगे 'अद्भुत' कहने के लिए।धुल का एक-एक कण नृत्य करने को विवश हो जाता होगा कि मानो आज नटराज धरा पर उतरे हैं कोई महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए और सबको अपने हिस्से का योगदान करना है इस महारास में।
यदि स्वर्ग में देवतागण होते होंगे तो निश्चित ही पंडित जी के रूपमुद्राओं को देखकर हम मनुष्यों से ईष्या कर बैठते होंगे कि हाय हमें क्यों न यह सौभाग्य मिला कि हम सम्मुख बैठकर पंडित जी के नृत्यकला का आनंद ले सकें।पुरुष की देह में संख्यातीत स्त्रियों-सी अंग चालन की मृदुल एवं मनोहर चेष्टा समेटे जब भी वह मंच पर उपस्थित होते थें,समस्त अप्सराएँ मारे डाह के स्वर्ग की उस नदी में डूबकर मर जाने की चेष्टा करती होंगी जिसमें डूबकर देवता अमर हो जाते होंगे।साधारण स्त्रियों की फिर क्या बात कही जाए भला!
जीवन का यह महाशोक है कि हम उम्र बढ़ने के साथ अपने आत्मीयजनों को खोते चलते हैं।ऐसे साधकों को खोते चलते हैं जिनका होना इस धरा पर इस धरा को स्वर्ग बनाता है।हम फिर से हनुमान जयंती पर संकटमोचन महाराज के प्रांगण में इकट्ठे होंगे, किन्तु अब हमारे मध्य कभी पंडित जी नहीं होंगे।उनकी स्मृतियाँ हीं संगीतरसिकों के संग होंगी और बताती रहेंगी कि कला कैसे मनुष्य को उसके वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनाता है,अन्यथा तो हममें और पशु में अंतर ही क्या है भला!
जातिस्मरता मुक्ति मार्ग की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कुंजी है और पंडित जी की शास्त्रीयता से ओतप्रोत कला जातिस्मरता की एक कुंजी थी।हमने इस कुंजी को खो दिया सदैव के लिए।यदि कभी कहीं किसी को कोई ऐसा मिले जो उसे जातिस्मरता की तनिक भी झलक दिखाए तो बस उसके पांव पकड़ लीजिए वहीं और निकल चलिए उस महामार्ग पर,क्योंकि पंडित जी जैसा साधक मात्र अपनी कला से चमत्कृत करने इस धरा पर नहीं आते,वह आते हैं आपकी उंगली पकड़कर आपको आपके कल्याणकारी मार्ग पर ले चलने के लिए।
पंडित जी की नृत्य साधना,उनके पदचाप,पैरों में बंधे उनके घुंघरू और उन घुंघरूओं के बजने मात्र से सृजित होता एक लोक,भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक अनमोल धरोहर तो है ही;उनके पदचाप,उनके घुंघरू भारतीय आध्यात्मिकता की भी अद्भुत पहचान है जो बताता है कि साधना सच्ची हो तो प्रत्येक मार्ग परमेश्वर की ओर ले जाता है।सुर-लय-ताल से साधा गया मार्ग भी ईश्वर से भेंट करा सकता है।
बनारस,संकटमोचन महाराज का प्रांगण,हनुमान जयंती का विशिष्ट दिवस और समक्ष मंच पर ईश्वर से मिलाने को आतुर पंडित जी जैसे साधक!एक साधारण मनुष्य को इससे सहज मार्ग और कहाँ मिलेगा मुक्ति का!
हमने नृत्य के माध्यम से मुक्ति का सहज मार्ग दिखलाने वाले महाप्राण बिरजू महाराज को क्रूर काल के हाथों खो भले दिया हो किंतु संकटमोचन के प्रांगण में बिताये हुए ऐसे संगीत-संध्याओं की स्मृतियाँ मेरे जैसे रसिकों के लिए जीवन की अमूल्य धरोहर है।
पंडित जी,नटराज भगवान आपको अपने लोक में स्थान दें।इस अंकिचन की ओर से विनम्र शब्दांजलि....🙏💐
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अति सुन्दर, मैम।