संसार में एक ही दुःख है-मित्रता ।
संसार में एक ही सुख है-मित्र न होना।
ओशो ने कहा है
“मित्रता प्रेम से भी ऊपर है “।
इसलिए प्रेम का डंसा बच भी जाए,पर मित्रता से डंसा हुआ पानी भी नहीं मांग पाता,मर भी नहीं पाता।
अपनी प्यास,अपना दुःख लिए वह भटकता रहता है प्रेत की तरह।उसको कोई नहीं सुनता क्यूंकि दुनिया मित्रता के नशे में है।बस पता नहीं है कौन किसको पहले डसेगा!
अमैत्रेय ही है इस दुनिया का स्वरूप,अन्यथा क्यूँ आते बुद्ध मैत्रेय बनकर पुनः मित्रता सिखाने!
शास्त्र कहता है “ओम मित्रेभ्य नमः”
मैं कहती हूँ “ओम अमित्रेभ्य नमः”
मेरा बस चले तो प्रत्येक मंत्र के बाद तीन के स्थान पर चार बार शांति कहूँ, चौथा मित्रता रूपी ताप की शांति के लिए।
क्लोरोफार्म के आविष्कारक सिम्पसन के बारे में कहा जाता है कि वह आजीवन एक सच्चे मित्र की खोज में रहे और अन्ततोगत्वा एकाकी मरे। फिर भी निश्चयतः वे शांति से मरे होंगे।
हर उस मित्र को जिसे हम देते हैं जितनी ज्यादा निजता, आत्मीयता, संवेदनात्मक संस्पर्श, उसे लौटाता है वह उस निजता को चौराहे पर नीलामी लगाकर, आत्मा का गला रेतकर, संवेदनात्मक संस्पर्श को वासना के कीचड़ में लपेटकर, एक नर्क उपहारस्वरूप! जिसमें टूटा हृदय लेकर घूमता है फिर कोई न जाने कब तक के लिए!
जब टूटे हुए देवता नहीं पूजे जाते हमारे यहां तो टूटे हृदय वाले मित्रों की क्या बिसात!
बचता है उसके पास त्रासदियों का बिछौना, अकेलेपन की चादर ,फिर से छले जाने का भय है,पीठ से हर क्षण रिस रहे घाव हैं,जिन पर दवा भी नहीं लगा सकता कोई खुद और सब पीड़ाएं इक्कठे होकर पैदा करते रहते हैं जब तब कोई रोग शरीर में।
मेरे सब देह- मन- आत्मा के रोग, छल हैं मित्रता का,जो जब-तब उभर आते हैं मुझे चेताने के लिए मानो कि अबकी विकल्प मिले मित्र और साँप में से किसी एक को दूध पिलाने का तो सांप ही श्रेष्ठ चुनाव होगा।
मित्रता वह घुन है जो खोखला कर देता है देह-मन-आत्मा को,कोई जान नहीं पाता इस छल को।
दरअसल मित्रता के स्वार्थ का पता बहुत देर से लगता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
मित्रता मनुष्यों के साथ ईश्वर का किया गया दुर्व्यवहार है!यदि ईश्वर है तो अन्यथा यह मनुष्यों द्वारा की जाने वाली सबसे बड़ी मूर्खता है।।
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