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नीत्शे...

 


नीत्शे…

 

सत्य कुरूप होता है।हम कला की शरण में इसलिए जाते हैं कि सत्य कहीं हमारा सत्यानाश न कर दे।—–‘फ्रेडरिक नीत्शे।
यह वक्तव्य देने वाले दार्शनिक नीत्शे सत्यम, शिवम,सुन्दरम को किस तरह परिभाषित करते?,

प्रत्येक देश- काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति-विचारक- दार्शनिक-साहित्यकार का अपना सत्य होता है।नीत्शे इसपर क्या कहते, या किस तरह इसे समझाते, ये तो हम और आप एक अनुमान लगा ही सकते हैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से।किन्तु मेरे विचार में सत्य को जानना गहनतम दुःख के बोध में डूबना है, यह दुख-बोध सत्य को जानने का तार्किक परिणाम है।एक सम्वेदनशील व्यक्ति के लिए इस जीवन और उसके हर पक्ष की नग्न सत्यता को जानने के प्रतिफल में शिव और सुंदर तक पहुंचने के पहले उसे यदि कुछ मिलता है तो वह आत्मपीडा है।और मजे की बात ये है कि संसार-सम्बंध- प्रेम- मित्रता के ताने-बाने से बुने गए इस संसार की कुरूपता में उतरने से,जीते जी इस जीवन से आत्म निर्वासित होकर जीना और यह पीड़ा भोगना अधिक श्रेयस्कर लगता है। हो सकता है इस तरह जीना सम्भवतः इसलिए ठीक लगता हो कि यह सत्य से शिव और सुंदरम तक पहुंचने का मार्ग हो! हो सकता है बुद्ध बनने का मार्ग हो, किंतु जब तक ऐसा नहीं है तब तक मैं तो कहूँगी कला ही क्या जीवन का हर उत्सव-राग-प्रपंच इस सत्य की कुरूपता से स्वयं को नष्ट होने से बचाने का एक तरीका मात्र ही है, खुद को भ्रम में डाले रहने का उपाय मात्र है,स्वयं के भीतर झांकने से बचने का जतन मात्र है।हम बचना चाहते हैं स्वयं के भीतर झांकने से, क्यूंकि नीत्शे ने कहा था कि ‘ ईश्वर मर चुका है’, मैं तो कहती हूँ हम इंसान के अंदर की इंसानियत मर चुकी है, हमारे आँखों का पानी मर चुका है।पता नहीं हम इंसान अपने अंदर यह इंसानियत लेकर पैदा ही नहीं हुए कि जीवन मे एक अंधी दौड़ ने इस इंसानियत को मार दिया! हम सब सत्य से भागे-फिरते लोग हैं, अंदर से पूरी तरह सड़ चुके और विक्षिप्त लोग हैं, बस बाहर में हम सभ्य दिखने का नाटक करते हैं, जो इस नाटक में जितना बेहतर अभिनय करता है, वह उतना ही सभ्य दिखता है।
सत्य जानना और उसको ज्यों का त्यों जीवन में उतारना , ये दो ही लोग कर सकते हैं, या तो दुनिया की दृष्टि में जो विक्षिप्त हो या जो दार्शनिक हो, और दोनों को पागल कहना आसान है, दोनों को दुनिया पागल कहती भी है क्यूंकि इन दोनों के पागलपन के पीछे दुनियावी सभ्य- सुसंस्कृत लोग अपने हृदय रूपी स्वरूप की कुरूपता और जीवन में सफ़लता के मार्ग में अपनाए गए वीभत्सता और क्रूरता को छुपा लेते हैं।
नीत्शे तो दोनों थे- विक्षिप्त भी,दार्शनिक भी।
सत्य जानकर आप यदि ये दोनों नहीं हो जाते तो आप क्या हैं, स्वयं विचार कीजिए।।

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