मैं बुद्ध के बताये दुखमय संसार की एक दुख मात्र हूँ…
दर्शन जगत् में बुद्ध का होना दर्शन जगत् की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।एक ऐसी उपलब्धि जिसपर दर्शन-जगत् जीवनपर्यंत अभिमान कर सकता है।क्योंकि उनके दार्शनिक उपदेशों में अथवा वचनों में मनोविज्ञान गहरे गुंथा है।अपने चिंतन में बुद्ध मात्र मनुष्य और उसके भोगे जा रहे दुखों को रखते हैं। जैसा चिंतन हम और वे 19-20 वीं शताब्दियों की चिंतन प्रणाली अस्तित्ववादी धारा में देखते हैं।बुद्ध अपनी छवि की चिंता किये बिना उन प्रश्नों पर चुप रहते हैं जिनके उत्तर नितान्त निजी अनुभव पर निर्भर हैं,जबकि हम मनुज जब कुछ नहीं जानते तब भी कितना बोलते हैं! कितना अभिमान करते हैं कुछ जानने का!
बुद्ध,जिन्होंने मन और उसकी वृत्तियों का ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है जिसे सामान्य अवस्था में हम मनुष्य पहचानने में चूक जाते हैं जबकि वे हमारे ही मन की वृत्तियाँ होती हैं।
हम बुद्ध को किसी देश-काल में नकार नहीं सकते।जैसे-जैसे हम वैचारिक और आनुभाविक यात्रा पर आगे बढ़ते हैं।जैसे-जैसे हम चिंतन के पथ पर आगे बढ़ते हैं,हमारा दुख तो गहन होता जाता है और हमें पता चलता है कि मुक्ति का मार्ग अंततः इसी गहनता में गहरे डूब से ही मिलती है।
कुछ लोगों के विषय में आपको उम्र के अत्यंत कोमल पड़ाव पर पढ़ने-जानने को मिल जाता हैं,किंतु उनकी कही बातों के भीतर विन्यस्त भाव आपको अपनी उस सुकुमार उम्र से निकलने के बाद ही अनुभव होते हैं।बुद्ध मेरे लिए वैसे ही एक दार्शनिक हैं। बुद्ध मात्र अपने चार आर्य सत्यों में ऐसी गम्भीर बातें करते हैं जिसने न केवल बाद में बौद्ध दर्शन की सशक्त दार्शनिक प्रणाली विकसित की बल्कि यूँ ही शास्त्रीयता से परे हट जिनपर सोचते हुए एक पूरा जीवन व्यतीत किया जा सकता है।बुद्ध जितने मेरे ह्रदय के समीप हैं,उतना कोई अन्य दार्शनिक नहीं।इसे आप मेरे ह्रदय और बुद्धि की दुर्बलता कह सकते हैं या बुद्ध के प्रति एक आत्मीयता का भाव।वह मेरे लिए उस पथ-प्रदर्शक के जैसे हैं,जिनकी उंगली पकड़कर मैं निःसंकोच इस तृष्णा से बजबजाते जगत् से पार पा सकती हूँ।बुद्ध द्वारा किये गए मन की जांच-पड़ताल इसे पार पाने को संभव बनाती है।
बूद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद के माध्यम से हमें आत्मावलोकन का पूरा अवसर देते हैं।हमारी चेतना में समाए वासनाओं के भीतर आच्छन्न जो दर्शन न्यस्त है,वह हमें आंतरिक यात्रा की ओर जाने पर विवश कर देता है।जैसे नैनी झील के किनारे बैठने पर झील अपनी ओर मुझे बुलाती-खींचती हुई सी लगती है,ठीक उसी की भांति बुद्ध का दर्शन,उनके वचन,उनकी छवि भी मुझे अपनी ओर खींचती है।
बुद्ध का प्रतीत्यसमुत्पाद वस्तुतः हमारी चेतना की अन्तरतम यात्रा है।किन्तु अपनी ही चेतना की यह यात्रा उर्ध्वगामी तो है किन्तु अवसाद से परिपूर्ण भी है।यदि आप इस यात्रा को पार कर मूल बिन्दु तक पहुँच गएं तब तो आप भी बुद्ध,अन्यथा जीवन भर हम अपना नर्क दूसरों में ढूंढते रहते हैं।क्योंकि अपने बाहरी जीवन के ठीक विपरीत एक व्यक्ति अपने अंदरूनी संसार में जिस भयानक रूप से अराजक और विश्रृंखलित होता है,वैसा शायद कोई दूसरा जीव इस धरा पर नहीं।
बुद्ध का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अचंभित करने वाला है।ऐसा बहुत कम दार्शनिकों में देखने को मिलता है जिन्होंने मनोविज्ञान की इतनी गहन छानबीन की हो।दर्शन जगत् में अहंकार का जैसा विश्लेषण बुद्ध,सांख्य और अद्वैत ने किया है,वैसा अन्यत्र कम ही दिखता है।
बुद्ध के कहे गए आर्य सत्यों को देखकर एकबारगी कहीं से नहीं लगेगा कि इन चार सत्यों में कितना कुछ समाहित है।किन्तु पहले ही आर्य सत्य में मुझे मिल जाता है वर्जिनिया वुल्फ़ के छलांग लगाने का मूल कारण।वहीं वान गाघ मिलते हैं प्रथम आर्य सत्य से लथपथ,वहीं उसी सत्य के किनारे मिलते हैं मुझेस्पिनोज़ा,ह्यूम, शोपेनहावर।उससे आगे बढ़ते ही और दूसरे सत्य तक पहुंचने के बिलकुल ठीक पहले ही मुझे मिलती है समस्त अस्तित्ववादी विचारधारा।वहीं मिल जाते हैं मेरे प्रिय सार्त्र,काफ्का।इससे आगे हम नहीं बढ़ पातें।हम भटकते रह जाते हैं और कभी नहीं पहुंच पाते तीसरे और चौथे सत्य तक।हम दूसरे सत्य तक भी नहीं पहुंच पाते क्योंकि बीथोवेन के संगीत की तरह यह चक्र हमारा ही बनाया है लेकिन हम इसे सुन नहीं पाते क्योंकि हमारी वासना ने हमें बहरा बनाकर रखा हुआ है।
लिखने को कितना कुछ है अपने प्रिय दार्शनिक पर,लेकिन एकांत में उनके दर्शन पर चिंतन करने का सुख भला प्रकट दुख से किन्तु तब भी नासमझी और अहम् से बजबजाते इस भीषण दोगले संसार पर भला कौन मूढ़ लुटाएगा!
यूँ भी बस यही एक सुख है कि इस छलिया संसार में कि हमारे पास छल से बचने के लिए चार आर्य सत्य की छांव है,लाठी है।
यदि पूरे लेख का सार कहने की कोशिश करूं तो यही कहूंगी कि 'बुद्ध को जानने का प्रयत्न भी करना एक प्रकार की आत्मपीड़क प्रार्थना है।यह प्रार्थना आपको अवसाद में ले जा सकती है यदि आप कमजोर ह्रदय वाले हुयें तो।किन्तु इससे बाहर निकालने का रास्ता भी उन्होंने तीसरे और चौथे सत्य में बताया है।और यदि हम चौथे सत्य को साध सकें तो इस जीवन की मलिनता तो दूर होती ही है,जन्मों की दुश्वारियों में फंसी चेतना इतनी निर्मल हो जाती है कि पुनः जन्म लेने की,तमाम भोगों को भोगने की इच्छा भी समाप्त हो जाती है सदैव-सदैव के लिए।'
उनके प्रतीत्यसमुत्पाद के भवचक्र में रचा-बसा सुंदर सङ्गीत हमारी शुद्धि के लिए निरंतर बजता रहता है, जब तक कि यह देह बची रहती है वर्तमान जीवन में।
मैं चाहती हूँ मई के इस तपते दिन में किन्तु जब दिन ढलता है तो जैसे चांद की पूर्णता मात्र माह की पूर्णिमा न कहलाकर कहलाती है अपनी शीतलता, ज्ञान,साहस,वैराग्य के बल पर बुद्ध पूर्णिमा;वैसे ही अपने कमरे के अकेलेपन के साथ इस संगीत को सुनुं इतने मनोयोग से कि अबकी जाते समय गर्मी की तपन कहें हौले से मेरे कानों में कि मैने चौथे सत्य की ओर एक पग पांव बढ़ा लिया है।ताकि शेष जीवन इस आस में बीत सके कि चौथे सत्य के दुर्गम रास्ते को भी पार किया जा सकता है।
Comments
कोशिश क्या जिजीविषा नहीं है?जीवन समूह में जीने का नाम है।पर मेरी मूर्खता ही सही मुझे लगता है बुद्धत्व एकाकीपन का ही प्रतिफल है।मैं गौरी शंकर को माता पिता मानते हुए अपने भीरूपन के सम्बल के रूप में ही उन्हें देखती हूँ।आप तो विदुषी हैं।गम्भीर लेखन है आपका।