पुस्तकों और उससे प्रेम के अनेकों किस्से हैं जीवन से जुड़े।उन किस्सों को लेकर एक पुस्तक की रचना तो हो ही सकती है।नहीं!यह इसलिए नही कि मैं ऐसा अपनी प्रशंसा में कह रही हूँ,बल्कि ऐसा इसलिए कि उन किस्सों को केन्द्र में रखकर जीवन के,रिश्तों के,मानवीय जीवन के, सामाजिक ढांचे के तानेबाने बुने जा सकते हैं जो हमें इनकी संरचना को हर दृष्टि से समझने में सहायक हो सकती हैं।
बहरहाल ये कहानी फिर कभी...
अभी तो यही कि जब भी पुस्तकों का जिक्र छिड़ता है,मुझे बरबस स्मरण हो आता है वह दिन जब मैं और मेरी बचपन की मित्र अपने घर की गली में एक दुपहरिया खड़े बात कर रहे थे,तभी वहाँ से फेरीवाला जिसने लड़कियों के लिए सलवार-कुर्ता,रंगबिरंगे दुपट्टे लिए हुए गुजरा।मेरी मित्र ने उसे आवाज देकर रोका और अपनी पसंद से एक कुर्ता खरीद लिया।चूंकि मैं भी विश्वविद्यालय में उस समय प्रवेश पा चुकी थी,अत: मुझे भी एक दुपट्टे की अतिआवश्यकता थी जिसे आवश्यकतानुसार कई सलवार कमीज पर चलाया जा सके।किन्तु मेरे पास उतने ही पैसे थे जिसमें या तो मैं वह पुस्तक खरीद सकती थी या वह एक दुपट्टा।अंततः मैने दुपट्टे के स्थान पर वह पुस्तक खरीदने का निर्णय लिया।किन्तु मन अंदर से थोड़ा उदास अवश्य था।यद्यपि यह उस प्रसन्नता से दब गई जो बाद में पुस्तक खरीदने पर हुई।
अनेकों रोचक घटनाएं भी हैं पुस्तकों को खरीदने के लिए,जब सब छल कर के कभी स्कूल,कभी कम्प्यूटर क्लास में लगने वाले फीस को माफ करा कर उससे मनपसंद पुस्तकें खरीदीं।ऐसे ही किसी फीसमाफी से जो पहली पुस्तक खरीदी थी वह बारहवीं कक्षा में खरीदी थी और पुस्तक थी' गुनाहों का देवता'।और एक दिन और एक पूरी रात जगकर उस पुस्तक को पढ़कर समाप्त कर ही सोई।
पुस्तकों से यह प्रेम कब और कैसे आरंभ हुआ,यह ज्ञात नहीं।किन्तु जब से होश संभाला,इस ओर रूझान स्वयं का देखा।हो सकता है यह पिछले जन्म के संस्कार हों।किन्तु यह भी सत्य है कि आरंभ में क्या पढ़ा जाए,इसका बिलकुल भी संज्ञान नही था।मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि आरंभिक दौर में मैंने सरस सलिल जैसी पुस्तकें भी पढ़ीं और घर में बड़ी बहनों द्वारा छुपाकर रखे गए गृहशोभा और इस तरह की अन्य पुस्तकें।कभी बड़ी बहनों के ससुराल जाने पर उनके घर पिछले कई दिनों के समाचारपत्र भी इकट्ठे पढ़ डालती थी।कभी सब्जी या अन्य घरेलू सामान मंगाने के लिए माँ द्वारा दिये गये पैसों से काॅमिक्स की पुस्तकें भी पढ़ीं तो क्रिकेट से संबंधित अनेकों मासिक पत्रिकाएं भी।
धीरे धीरे समझ बढ़ी और अनुभव ने सहयोग किया पठनीय और अपठनीय पुस्तकों में अंतर करने का।पुस्तकों सहित कुछ दार्शनिक,कुछ लेखक,कुछ इतिहासकारों ने जहाँ ह्रदय को चेतस बनाया तो कुछ ने मस्तिष्क को परिष्कृत किया।आखिरकार इन अचेतन पुस्तकों में इतना तो सामर्थ्य है ही कि कभी किसी क्षण किसी चेतन प्राणी में प्राण फूंक दें।
पुस्तकों संग सखावत् जैसे,जीवनसाथी जैसे,यात्रा अब तक जारी है।अब यह समझ तो आ ही गया है कि यही संग रहेगा भी जीवन के अंत तक।पुस्तकें और पुस्तकों को पढ़ने-गुनने की अभिरुचि।यही संग रहे तो ही बेहतर इस जीवन का अंत कुछ हद तक संभव भी हो किंचित्।
मैंने बहुत पुस्तकें पढ़ लीं हो,ऐसा नहीं है।मुझसे अधिक गंभीर और अनन्य अध्येताओं से मैं मिली हूँ।किन्तु मैने जितना पढ़ा,उसे समझने का पूरा जतन किया और उस समझ के सहारे जीवन के विविध पक्षों को समझने का प्रयास।जीवन में उतार और चढ़ाव दोनों का दौर आता है।दोनों ही दौर में चाहे प्रसन्न मन से,चाहे उदास मन से घर के इसी कोने की शरण ली।
विश्व पुस्तक दिवस का आज का यह दिन तो ऐसा है कि घंटो इसपर अभी लिखा जा सकता है,कुछ और कहा जा सकता है,उस समझ को जो मैंने सीखा,उसपर विमर्श हो सकता है और तब भी मन न भरे।किन्तु उस एक बात के साथ अपनी बात समाप्त करती हूँ जो एकबार किसी पुस्तक में पढ़ा था।अपनी पुस्तक को उसके लेखक द्वारा जिसे समर्पित किया गया था और जिस अंदाज में समर्पित किया गया था,वह आज भी स्मरण है।लेखक के ही शब्दों में–
"आदरणीय बड़े भाई को सादर समर्पित,जिन्होंने पढ़ा तो बहुत किन्तु लिखा नहीं।कर्म लिखा नहीं जाता।"
हमने क्या पढ़ा और पढ़े हुए को कैसे धारण किया,यह अंततः हमारे कर्म,हमारा आचरण ही निर्धारित करता है।
इसी के साथ विश्व पुस्तक दिवस की सभी को बधाई…
Comments