Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2021

द्वैत जीवन का अभिशाप...

  ⚫ मेरे मस्तिष्क में इतिहास की विसंगतियां चोट करती रहतीं हैं किन्तु दिल में आता है वर्जीनिया वुल्फ के जैसे एक छलांग लगाने की...  ⚫ बाहर 'शंकर' की तरह धर्मध्वजा उठाए हुए हूँ तो घर में काफ्का की तरह एक कीड़े में बदल जाती हूँ…  ⚫ घर से बाहर साहसी महिला हूँ लेकिन घर में ठीक उलट घबराई-डरी हुई...  ⚫ कार्यस्थल पर गधों की तरह खटती हूँ जिसका कोई हासिल नहीं लेकिन घर पर इतनी आलसी कि कोई अवार्ड हो आलसियों का तो प्रथम तीन में कोई स्थान पा जाऊँ...  ⚫ अपने- पराए सबके लिए अत्यंत क्रोधी/खड़ूस लेकिन मेरे कमरे में एक समंदर समानांतर बहता रहता है ⚫  राष्ट्रवादियों की आंखों में खटकती हूँ और वामपंथियों की नजर में घोर दक्षिणपंथी...  ⚫  नास्तिकों के बीच अत्यंत धार्मिक और धार्मिकों के बीच तार्किक अनीश्वरवादी...  ⚫  मित्रमंडली में बेफिक्र, अपने काम से काम रखने वाली लेकिन रात्रि के तिमिर में जीवन की अव्यवस्था पर विचार करती दार्शनिक...  ⚫  दिन में बोझल आंखो को ढोती हुई और रात्रि में जागती आंखो से जीवन की यातना भोगते हुए... ⚫ चाहत यही कि अपने बच्चों के साथ रहूँ लेकिन उन्हें गृहत्यागी बनने का उपदेश देती हूँ

आशुतोष के लिए...

  एक नदी थी पहाड़ों की, उसे पार किया तो देखा अनेकों परछाईयाँ पीछे पीछे आ रहीं हैं, न जाने मेरी धीमी चाल से या मेरे पैरों में धंसे कीलों को सीढी़ समझकर एक-एक परछाईयों ने मेरी आत्मा में घुसपैठ की,अर्थों के गद्दारों का साथ लेकर। बेचारे शब्द! ओह! जिनके चिथड़े रह-रहकर हवा में उड़ जाते परछाईयों की यह बात सुनकर,जो वे मुझसे कहते कि हम तुम्हारी आत्मा में धंसी कीलों को निकाल देंगे... कील को और गहरे धंसा वे एक-एक कर मुझसे होकर गुजर जाती थीं, मैं देखती नहीं थी उनमे से किसी की हैसियत, उनके कपड़े, उनके चेहरे, उनकी आंखें, जहाँ शील का पानी अपनी आखिरी सांसे गिनता था। किन्तु उनके शब्द के राज सुलझाते-सुलझाते नाखूनों का एक पूरा जंगल मेरी देह पर उग आता जबकि पुराने मेरे घाव नहीं भरते थे...  किन्तु अनजान अजगर मुझको पूरी तरह निगल जाए, इससे पहले उस आदिम अभिनिवेश के कारण मैने अपनी आत्मा के एक उजले टुकड़े पर विदा का रन्दा चलाया कि नदी पार के फूहड़ता और अव्यवस्थित रसोईघर में एक कोना साफ-सुथरा मिल सके।जैसे किराये के उस घर में एक चौकी और आलमारी पर मेरी पुस्तकें मुस्कुराती रहतीं थीं हर हाल में... और मैं वहाँ बैठकर द

शरद पूर्णिमा…

  शरदपूर्णिमा…. हमारे उल्लास का दिन…… हमारी दोस्ती के जश्न में डूबे अनेक दिनों में से एक नायाब दिन………. जब अनजाने ही कांधे पर ओढ़ ली गई उत्तरदायित्वों ने अपने आत्मीय नगर को छोड़ने पर मजबूर किया, तब कभी आज के दिन हम दूर थे पर आत्मिक रूप से उतने ही समीप, जितना दो दोस्तों को अपनी पूरी सच्चाई और निष्ठा के साथ होना चाहिए था, पर ठीक उसके पिछले बरस देश की राजधानी से हमने चांद को निहारते हुऐ पूरे हर्षोल्लास से इस दिन को जिया था, क्योंकि हमदोनों को चांद से बहुत प्यार था, प्रकृति से बहुत प्यार था।और तुम बहुत खुश थी कि कैसे एक मंझे हुए कलाकार की भांति मैं झूठ बोलकर तुमसे मिलने आई थी।अब तुम्हारे बाद कोई नहीं जान पायेगा कि एक लेडी इरफान खान और मनोज वाजपेयी मेरे अंदर भी था पर अब मेरे अंदर होने वाले अनेक बेमौतों में मेरे अंदर का कलाकार भी मर गया… तुमने बताया था कैसे अपने प्यार के शुरूआती दिनों में तुम अपने साथी संग छत पर एक साथ चांद निहारते थे और भौतिक दूरी को भी धता बताते उतने ही समीप होते थे जितने आत्मिक रूप से दो प्रेमियों को होना चाहिए।ओह!चांद तुम कितने सामर्थ्यवान हो!!! अब जबकि मैने अपना प्रिय काम

सूरज...

   सूरज जब थोड़े पास से गुजरा था, अपनी आग से डरा रहा था, मैने भी बिना देर किये खोलकर दिखा दिए सैकड़ों सूरज, जो रखे थे मेरे पर्स में।   'देखो, मेरे पर्स में पड़े हैं कितने सूरज!क्षोभ और अपमान का सूरज,पीडा़ और विषाद का सूरज,पीठ पर खाए चोट सूरज बन आ गए पर्स में, ह्रदय पर लगा घात धर सूरज का रुप रखें हैं पर्स में! बिछुड़ने वाले को ठीक से विदा न कर पाने का मलाल का सूरज-असमय हाथ छुड़ा लेने की वेदना का सूरज,मृत्यु और रोग के भय का सूरज! ऐसे जाने कितने सूरज पड़े हैं पर्स में इस जनम से या जाने कितने जनमों से।  और एक आखिरी, आग उगलती कलम का सूरज!जिसका कोई खरीदार, कोई प्रकाशक, कोई पढ़वइया नहीं।  अपने अंतिम दिनों में जब बुझने लगेगी तुम्हारी आग,ले जाना होगा तो ले जाना एकाध सूरज, पड़े हैं जो मेरे पर्स में।'

कछुआ...

  जन्म जन्मान्तर के कुचक्र में यदि समस्त प्राणियों का जीवन फंसा होगा तो कछुआ पिछले जनम में कोई मनुष्य रहा होगा जिसने अपने पीठ पर बडे़ घाव लिए होंगे! संभवतः ईश्वर घाटे में चल रहे अपने प्रेम और वफा के गोदाम का कर्ता-धर्ता कछुए के जिम्मे सौंप,चैन से सोने चले गए होंगे अपने धाम!  अ पने कोमल देह पर कठोर पीठ को लादे कछुआ कदाचित् यही बताना चाहता होगा कि कोमल ह्रदय वाले को अपनी पीठ कठोर ही बनानी पड़ेगी...  ...तभी दिल की तबियत ठीक रहेगी और पीठ भी छिलेगी नहीं।पीठ पर लगा कोई घाव आत्मा को दुखाएगा तो किन्तु वहाँ न भरने वाला नासूर नहीं बना पाएगा। दरअसल पीठ पर घोंपे गये प्रेम और मित्रता रूपी चाकू की नोंक ह्रदय से होते हुए आत्मा को गहरे घायल कर देती है…            यदि जन्म जन्मान्तर का खेल है अस्तित्व,तो मुक्ति भी होगी और तब प्रेम और मित्रता की चोट से मुक्त आत्मा मुक्त भी हो जाएगी।क्योंकि प्रेम और वफा से घायल आत्मा की पता नहीं मुक्ति होती भी है या नहीं!  'सारे घाव पीठ सहेगा;सारे दुख ह्रदय उठाएगा और इस तरह आत्मा निश्छल-निर्मल बचा रह जाएगा' बस इतना ही कह झट कूद गया मेरे हाथ