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शरद पूर्णिमा…

 


शरदपूर्णिमा….
हमारे उल्लास का दिन……
हमारी दोस्ती के जश्न में डूबे अनेक दिनों में से एक नायाब दिन……….
जब अनजाने ही कांधे पर ओढ़ ली गई उत्तरदायित्वों ने अपने आत्मीय नगर को छोड़ने पर मजबूर किया, तब कभी आज के दिन हम दूर थे पर आत्मिक रूप से उतने ही समीप, जितना दो दोस्तों को अपनी पूरी सच्चाई और निष्ठा के साथ होना चाहिए था, पर ठीक उसके पिछले बरस देश की राजधानी से हमने चांद को निहारते हुऐ पूरे हर्षोल्लास से इस दिन को जिया था, क्योंकि हमदोनों को चांद से बहुत प्यार था, प्रकृति से बहुत प्यार था।और तुम बहुत खुश थी कि कैसे एक मंझे हुए कलाकार की भांति मैं झूठ बोलकर तुमसे मिलने आई थी।अब तुम्हारे बाद कोई नहीं जान पायेगा कि एक लेडी इरफान खान और मनोज वाजपेयी मेरे अंदर भी था पर अब मेरे अंदर होने वाले अनेक बेमौतों में मेरे अंदर का कलाकार भी मर गया…
तुमने बताया था कैसे अपने प्यार के शुरूआती दिनों में तुम अपने साथी संग छत पर एक साथ चांद निहारते थे और भौतिक दूरी को भी धता बताते उतने ही समीप होते थे जितने आत्मिक रूप से दो प्रेमियों को होना चाहिए।ओह!चांद तुम कितने सामर्थ्यवान हो!!!
अब जबकि मैने अपना प्रिय काम छोड़ दिया जबसे तुमने अपनी वो दुनिया छोड़ दी,जिसकी मैं एक खासमखास सदस्य थी तो मैने भी छत पर आना छोड़ दिया।वरना तुम्हें तो पता है न कि कृष्ण पक्ष के आखिरी दिनों और अमावस की रात में भी मैं आसमाँ में चांद को ढूंढती थी और तुम्हें दिखाती थी चीखते हुए कि मिल गया चाँद।उफ्फ,तुम्हारे बाद कोई न जानेगा मेरे इस ठीक हो गए पागलपन को!!!
आज छत पर आई पर बहुत भारी पैरों से क्योंकि सबसे भारी होते हैं वो पैर जो चलते हैं तब,जब जीवन को शरदपूर्णिमा सा चमकदार बनाने वाला जीवनसाथी पूरे जीवन पर ही कभी न छंटने वाला ग्रहण लगा गुम हो जाता है।छत पर आने के बाद मैने आसपास झांका और एक बार फिर आत्महत्या का विचार आया जैसे तुम्हारे द्वारा चांद की छत से धकेल दिये जाने के बाद आया था, पर मैं न तब मरी और न अब।क्योंकि मेरे घर की छत उंची नहीं है।एक ही चीज उंची हो सकती थी या कि छत या कि जमीर।क्या नहीं!!!
जीवन के संघर्षों से तो नहीं पर तुम्हारे दिये यादों के जखीरों को ढोते ढोते मेरा दम फूलने लगा है कि जब तब सांस लेने में कठिनाई सी महसूस होती है।कहते हैं कि लाल रक्त कणिकाएँ जब आक्सीजन शरीर में ठीक से संचारित नहीं कर पाती, तब फूलता है दम।अक्सर ऐसा होता है जब तुम्हें याद करते हुए मेरे शरीर की लाल रक्त कणिकाएं शिथिल पड़ जाती हैं, तब रूकती सी महसूस होती है सांस।पर एकदम से नहीं रूक जाती,न रक्त कणिकाएँ, न सांसें।एक घाव सा बन गया है पीठ के रास्ते सीने में कि फेफड़े दिनपर दिन दबाव महसूस करते हैं उसपर।पर काम न फेफड़े बंद कर रहे, न घाव।बस दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा सांसों का बोझ!!!
बहुत से दुखों ने जिसे तुम पी गए थे ,सब ने यकायक मौका पाकर हमला कर दिया है।तुम्हें याद तो होगा न!दुनिया के मुझपर लगाए जिन इल्जामों से तुम मुझे बचाते रहे, जब तुमने वही इल्जाम पूरे होशोहवाश में लगाये तब से रोज ही वह इल्जाम मेरे मन-शरीर पर जहां तहां ठोंकता रहता है दुख की कीलें…जिनसे बह निकलता है कभी न सूखने वाली पछतावे की रक्तधारा।
मैं क्या ही तो कहूँ और किससे कहूँ!!दुनिया पूरे समर्पण मे भी ढूंढ लेती है कोई चालाकी।गहरे, काले दुख मे भी निरपराध चेतना पर लाद देती है कोई इल्जाम बजाय ओढ़ाने के अपनी संवेदना की चादर।और जो तुम सुनते, तो फिर यह दुख ही क्ंयोकर होता!!!
तुम्हें पता है,मेरे कांधे बहुत कमजोर हो गए हैं क्योंकि सबसे निर्बल हो जाता है ये हिस्सा जब बूढ़े मां बाप नहीं होते लेने के लिए कांधों का सहारा।जीवन के तीस ही दशक पूरे करने के बाद मेरे प्रारब्ध ने फेंक दिया पूरी निर्लज्जता से अकेले मुझे हर तरफ ब्रूटस से भरी दुनिया में कि मिला नहीं अब तक कोई कर्ण।यह प्रजाति शायद अब विलुप्तप्राय हो गई है।मां-बाबूजी के जाने के बाद त्योहारों में जब घर लौटना हुआ तो, सब कुछ बहुत फीका था।स्वागत भी,विदाई भी।इसलिए नहीं सिर्फ कि केवल मां-पिता नहीं थे,जिनसे घर था।इसलिए कि भाई-बहनों के कहकहे से भरी दुनिया यकायक अकेलेपन की गुंज़ से भर गया,गोया वो सब भाई-बहन ही तबतक मुकर्रर थे जबतक हमारे जन्मदाता रहे इस धरा पर।।
और फिर जब तुम ही नहीं मिले मुझे मेरे शहर में, ये शहर भी जैसे भूल गया हो मुझे।।पर मैं क्यों सब बिसार नहीं पाती!!!
मैं जिंदा हूँ बड़ी बेहयाई से अब तक,जबकि जीवन के समस्त नकारात्मक पर्यायों ने मिलकर तुम्हारे साथ बिताए खुशनुमा पलों के साथ एक ऐसा कुहासा घेर दिया कि उसको भेद नहीं पाती धवल चांदनी की श्वेतिमा।और आसूरी शक्तियों सा विशाल मुख लिए इस कुहासे ने ग्रस लिया है मेरे जीवन के कोमलतम, कलात्मक मन को,कि फिर भी मैं जिंदा हूँ क्योंकि यह दौर है मोह मे जकड़े अर्जुनों का और सबसे मुश्किल है इन्हें मोह से मुक्त करना क्योंकि ये जानते भी नहीं कि ये मोह से ग्रस्त हैं।यह दौर है चक्रव्यूह में फंस गए बहुत कम मात्रा में बचे अभिमन्युओं का।इन्हें बचाना है कि अब जो मरा अभिमन्यु तो फिर नहीं पैदा होगा क्योंकि कोई कृष्ण अब नहीं मिलता कहीं, बनना भी नहीं चाहता कि कौन ले छलिया और रणछोड़ होने का इल्जाम।तुम्हें शायद पता नहीं मैं परिवर्तित हो गई हूँ अपने रोल माडल के चरित्र में, लक्ष्य साधने का मोह त्यागकर कि अब होगा भी क्या कोई जीवनराग छेड़कर जब तुम नहीं हो साथ मेरे दोस्त!पर तुम्हारे बाद कोई जान नहीं पायेगा कि एक व्यक्ति जो मर जायेगा एक दिन एक गुमनाम मौत,वह अपने समय का कृष्ण था।।।
और जो तुम नहीं तो कौन मेरे हक में गवाही देगा।।।फिर भी….
मैं जिंदा हूँ बड़ी बेहयाई से अब तक,जैसे वह प्रधान ईश्वर का मुझे दिया गया अभिशाप हो,जिसने अतिमहत्वपूर्ण उत्तरदायित्व उस पुरूष को दिया था,प्रलय से सात दिवस पूर्व जबकि सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो जायेगा तब संभाल कर अगले सृजन के लिए कुछ जीव,जंतु,पादप,बीज,वनस्पति सवार हो जाना है ताकि प्रलय के बाद नवीन सृजन रूपी महान कार्य हो सके,
मैं अभिशापित सी अश्वत्थामा की भांति, तुम्हारे बिना अपने निर्बल पीठ और कांधे पर लादे वफा,प्यार, निश्छलता,करूणा,पवित्रता, समर्पण की झीनी सी गठरी,सवार हूँ काल के रथ पर कि दुनिया जब इनसे खाली हो जाय तब क्रूर काल अट्टहास करता हुआ,लेकर मुझसे ये गठरी जहाँ तहाँ बिखेर दे इस शरदचांदनी सा श्वेत, धवल,सात्विक बीजों को कि जहाँ में फिर से लहलहा सके बुद्ध की करूणा,बोधिसत्वत्ता।हो सके शंकर का महामाया के मोह से मुक्त जीवन्मुक्त पुरूषों का सृजन,कि धरा पर यथार्थ हो सके दिव्य जीवन का श्री अरविंद का स्वप्न।।।
और तब भी मेरी आत्मा को चट करता रहेगा एक दीमक अंनत काल तक,जो उन शब्दों के जोड़ से बना,जो उच्चारित किये थे तुमने आखिरी बार विदा होने के ठीक वक्त।।न मालूम सृष्टि-प्रलय और इनके मध्य मेरी मुक्ति है भी कि नहीं क्योंकि पता नहीं है न,कि प्रेम और मित्रता में ठुकराए गये आत्माओं की मुक्ति होती है या नहीं!!!
फिर भी मन के अपने कंपकंपाते और कमजोर हाथों से बटोरते हुऐ ह्रदय के समस्त पवित्र भावों को मैं यही प्रार्थना करती हूं मां शारदे से कि उनसब मेरे आत्मीयों तक पहुंचे मेरे स्नेह और शुभकामना का कवच,जो बचाये उन्हें जीवन के अमावस से…
जो देश-काल में हैं और देशकाल से परे,जहां जिस रूप मे भी हैं,ले आनंद इस शरदपूर्णिमा की पवित्र रात्रि का …
और तुम भी मेरे दोस्त, तुम भी!!!
जब कि मन का कोई अंधेरा कोना इस धवल चांदनी मे भी तुम्हारे लिए गुनगुनाना चाह रहा है….
“मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो,
मुझे तुम कभी भी भूला ना सकोगे”।
( कलम इस उद्देश्य से चलाया गया है कि ट्रैजडी महानायकों के जीवन में ही नहीं हम जैसे, और हमारे ओर बिखरे चारों तरफ़ की बैचेन चेतनाओं में भी होती हैं,बस पता नहीं चल पाने के कारण वह असमय काल-कवलित हो जाते हैं, सो इस सात्विक रात्रि में मां शारदे और पूरे चमकते चांद से ये भी प्रार्थना की रात्रि है कि सबके जीवन में शुभ और शिव हो।प्रकाश हो ज्ञान और कला का, कि एक-एक जीवन सार्थक हो सके मानवीय अस्तित्व के पूरे चेतना बोध के साथ))

Comments

Unknown said…
ग़म-ए-हस्ती का "असद" किस से हो जुज़ मर्ग इलाज?
शम्अ़ हर रंग में जलती है सह़र होते तक।।
मिर्ज़ा ग़ालिब
हमारी ज़िन्दगी में जो ग़म है, उस से छुटकारा सिर्फ़ मौत ही दिला सकती है। ज़िन्दगी में दु:ख-दर्द का मौत के सिवा कोई इलाज नहीं, चाहे ख़ुशी की मह़्फ़िल हो या कोई शोक सभा शम्अ़ को हर सूरत में सुब्ह़ होने तक जलना ही पड़ता है।
इन तमाम चीज़ों से अलग ये बात कही जा सकती है कि लेख बहुत सुंदर है। इस में जज़्बात-ओ-एह़सासात की धारा इतनी तेज़ गति से प्रवाहित है कि पाठक अपने आप को संभाल नहीं पाता और वो भी चाहे अनचाहे तौर पर लेखिका के साथ-साथ स्वयं भी बहने लगता है.... इतने सुंदर लेख के लिये लेखिका को तह-ए-दिल मुबारकबाद....
फ़ख़रे आ़लम

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