मैं इसी भय से ही तो ईश्वर को स्वीकारे हूं,जबकि मैं जानती हूं कि दर्शन में जितने तर्क ईश्वर की सिद्धि के लिए है उतने ही उसके असिद्धि के लिए भी है। विज्ञान,मानो न मानने वाले का ही सहायक है और मेरी श्रद्धा! वह कभी भय मुक्त होती है या नहीं, मुझे नहीं पता ठीक ठीक।इसलिए मैं जानती हूं मेरी श्रद्धा में ये मेरे भय, मेरे घबराहट की मिलावट है जो उसको माने है। जबकि यह लिखते वक्त भी मैं डर रहीं हूं कि वह हो और यह पढ़कर कहीं गुस्से में मुझे उन संकटों में पड़ने पर फिर से न निकाले तो, जिनसे उसने कई बार मुझे निकाला है!
मैं ऐसे ही हमेशा संशय ग्रस्त रहती हूँ।वह कभी भूले से दिखता भी तो नहीं।जैसे प्रेम!कहाँ दिखता है,हम केवल कहते हैं।विभिन्न तरीकों से, व्यक्त करते हैं प्रेम को।तभी तो बार-बार कहने-बताने के बाद भी कहते हैं।मानो शब्द शब्द नहीं होते, सेतु हों। कि एक के हृदय के भावों को दूसरे के हृदय तक पहुचाने वाले मजदूर हों।हम दिखा कहाँ पाते हैं प्रेम को,प्रेम की सच्चाइयों को।कितना प्रेम है,कहाँ दिखा पाते हैं हनुमान जी की तरह सीना चीरकर कि देखो मेरे हृदय में तुम ही तो हो।तभी तो एक दिन प्रेमी कहता है अब मैं तुमको प्रेम नहीं करता,अब तुम मुझे प्यार नहीं करते इसलिए हमे ब्रेकअप कर लेना चाहिए।और फिर हम चल देते हैं कहीं और प्रेम तलाशने। भला प्रेम होता तो यूं खत्म कैसे हो जाता? वैसे ही कभी ऐसा हो कि मेरी श्रद्धा कह दे कि ईश्वर कहाँ है! वह तो तुम्हारा डर था,जिसके कारण तुम ईश्वर को मान बैठे थे।
श्रद्धा, जैसे पीछे छूट गया कोई मित्र जिसने कभी कहा कि “अब तुममें गुरुपन नहीं,वह तो मेरी भूल थी जो मैं ऐसा समझी थी,दरअसल तुममे एक नागिन बसता है”।तब मुझे लगा एक जहरीले हृदय में सच में प्रेम कैसे रह सकता है! मैं बहुत डर गई थी तब कि मेरी सच्चाई सबको न पता चल जाए! मैने डसा भी तो है बहुतों को।तभी से तो मेरे भीतर काफ्का नहीं रहने लगा!
या ये भय,ये बेचैनी,घबराहट उस आदिम काल से ही मेरे भीतर तो नहीं समाया जब मेरे गर्भ में आने पर माँ को पता चला होगा और वो ये सोचकर डर गई होगी कि ढलती उम्र में संतान! मानो कोई अपराध हो जैसे!या फिर अंतिम य़ह संतान फिर लड़की न हो!या मेरे पिता ने जब जाना होगा तो डरे होंगे कि ख़र्चे में और बढ़ोतरी!
मुझे ठीक समय नहीं पता पर ये भी हो सकता है ये डर शायद तब से हो जब बचपन में पहली बार किसी ने मेरे रंगरूप का मज़ाक बनाया था! मैं रोज ही देखती आईने में खुद को, दिन में कई कई बार,पर आईना बस चुपचाप मुझे दिखा सकता था,समझ नहीं दे सकता था ।किसी को भी नही समझा सकता आईना।और मैं उलझी रहती थी दिनभर कि मैं कहाँ से खराब हूं! औरों की तरह मेरे दो कान हैं, मुंह है,चेहरे के सब अंग ठीक से हैं,शरीर में वैसे ही सब अंग हैं जो दूसरों के पास हैं।बाद में पता चला मेरे पास रंग नहीं है,मेरे पास एक बड़ी सी नाक है जिससे हो सकता है कभी मेरी शादी न हो!लम्बाई थोड़ी सी कम है।उबकाई सी आई थीं मुझे तब दुनिया के सुंदरता की समझ पर! मन हुआ था चिल्ला कर कहूँ मैं तब भी सुंदर हूं,मेरे पास बहुत सुन्दर मन है जो तुम्हारे पास नहीं।जिस- जिस ने मेरा मज़ाक बनाया,उसके पास नहीं है। न सुन्दर मन,न नजर।पर मैं डर गई माँ को देखकर कि कहीं मेरे चिल्लाने से इसकी बदनामी न हो, इसे कोई दिक्कत न हो और मैं चुप रह गई।पर मैं मारे गुस्से से कांपती थी उन दिनों। ये कंपकपाहट तभी से तो नहीं!
फिर एक दिन एक दोस्त ने समझा मेरे मन को और कहा”तुम्हारा मन बहुत सुन्दर है”।फिर एकदिन कहा “मुझे तुमसे नफरत है,तुममें बस वासना भरी पड़ी है”। एक बार किसी एक दूसरे दोस्त ने कहा “तुम्हारी आँखों में खरगोश सी चमक है,एक बच्चा है तुम्हारे अंदर जो तुम्हारी आँखों में दिखता है”।अंतिम झगड़े में मैंने उसीकी बात उसे याद दिलाई पर सब बेकार। शायद मेरे आँखों में रह रहे खरगोश को भकोस लिया था किसी ने या मैंने खुद! तब से मैं अपनी नजरें चुराने लगी हूं सबसे।लेकिन एक बार एक जानने वाले ने पकड़ ही लिया और कहा “तुम कुछ छुपा तो नहीं रहीं हो, तुम्हारी आँखों में उदासी है”। एक बार उसने भी कहा था “तुम्हारी आँखों में बच्चों वाले शरारत है”। मैं हास्टल के दिनों में उसे बहुत परेशान करती थी।
मैं तब से बहुत डरी रहती हूँ कि कोई मेरी नजरें न पढ़ सके।पर न जाने कैसे प्राग की सड़कों पर बैचैन घूमने वाले काफ्का की आत्मा ने इस भय,बैचेनी,घबराहट को जान लिया,तब से मेरे भीतर काफ्का रहने लगा।
नहीं, ये सब झूठ हो सकता है! हो सकता है मेरी इसमे कोई गलती न हो!किसी की कोई गलती न हो! हो सकता है,दुनिया ही घबराहट में बनी हो!कोई ईश्वर हो,जो बना रहा था लाइबनित्ज की समस्त सुंदरताओं की संभावना से भरी दुनिया और अचानक उसे पता चला हो कि यह तो शोपेनहावर की दुनिया बन रहीं है,सभी संभावित दुनिया में सबसे बुरी दुनिया!और मारे डर और घबराहट के उसके हाथ से छूट गई अधूरी सी बनी दुनिया,जिसे तराशना रह गया था।दुःखों की छंटनी रह गई थी। वासनाओं के खरपतवार फेंकने को रह गया।जैसे भक्त ने छोड़ दी आराधना अधूरी,जैसे संगकार तराश न पाया अपनी मूर्ति। जैसे चित्रकार के रंग बिखर गए उसकी कृति पर,जैसे कूची के बाल गए हों बिखर।जैसे नियतियां हावी हो गई हों अपने ही रचयिता पर, जैसे उन्होंने ईश्वर को उसके पद से हटाकर कब्जा कर लिया हो दुनिया पर। जैसे और बहुत कुछ रह गया था कहने को पर,सुनने वाला चला जाए बात अधूरी छोड़कर।जैसे साँपों को पसंद नहीं आया ये भूतल रहने को,और उन्होंने नया ठिकाना बनाया आस्तीनों को …. तब शायद सृष्टि के आदिम काल से ही हो मेरे भीतर एक काफ्का!भयभीत, बेचैन,कंपकपाता हुआ…
मेरे शब्दों को यूँ तो मेरा डर भकोस लेता है कई बार, लेकिन फिर भी लिखती हूँ टूटा- फूटा सा। पर कोई भविष्य नहीं लिखती,न आपबीती।बस वर्तमान जो मुझपर, मेरी देह पर बढ़ई के रन्दे की तरह चल रहा है मन के छालों को छीलती हुई,या गर्म धधकती भट्टी में मेरी स्मृतियों को पकाती हुई,उसे ही लिख रहीं हूं। दुनिया एक दिन इस लिखे को अतीत-वर्तमान-भविष्य कहीं भी रख देगी,वह सत्य ही जान पडेगा किसी का। सत्य ही होगा किसी का…
मेरे भीतर एक काफ्का रहता है…से कुछ अंश।
Comments