समक्ष माँ गंगा स्थिरता का भ्रम रचती हुई प्रवाहित हो रहीं हैं।सामने घाट से राजघाट तक जगमग करते घाटों की सर्पीली श्रृंखला है।पर ये सब देखते हुए मैने इन्हें नहीं देखा,बल्कि देखा एक किनारे आसमान छूती हुई एक फ्लैट गर्व से तनी हुई थी जिसकी खिड़कियों से रौशनी छन-छन कर गिर रही थी।जिसे देखते हुए तुम याद आए और तुम्हें याद करते हुए वही अनुत्तरित प्रश्न स्वयं से पूछा कि जैसे इतनी दूर से इन खिड़कियों को देखते हुए उनमें मैं तुम्हें ढूंढ रहीं हूँ,क्या तुम भी अपने घर की खिड़की से झांकते,बाहर चलते हुए लोगों में मुझे ढूंढते होगे! हेडफोन में गाना बज रहा था–'मैंने तुझे देखा.... इसमें एक लाइन है 'मैंने तुझे देखा इश्क के मलालों में',मैं अब तुम्हें वहीं देखती हूँ।और तुम भी मुझे देख रहे होगे अपने किसी कर्म की सजा में।
इस दुख में पुल की रेलिंग पर हाथ धर ह्रदय को टेक देना चाहा तो पुल की धड़कनें सुनाई दीं।वही पुल जिसपर खड़ी हूँ।न जाने पुल बनाने वालों में से किसकी ह्रदय की धड़कने पुल में समा गईं कि छूट गईं,क्या मालूम!उन धड़कनों को अनसुना कर आगे बढ़ना था क्योंकि यही नियम है इस बेढ़ब-बेगढ़ संसार का कि मंजिल पर जितनी शीघ्रता हो पहुंचने की,उतना ही अनसुना कर चलना होगा न केवल धड़कनों को बल्कि हर अपने की आवाजों को। बाकी उन आवाजों-धड़कनों को दबाने का काम आवाजों के बाजार कर देंगे।
बहरहाल इन यादों से,दुनियावी तरीकों को,गंगा के अबूझ सौन्दर्य को ढोते हुए कुछ आगे बढ़ी तो कूड़े का ढेर नजर आया।सहसा मन में आया कि यह सम्पूर्ण संसार ही ईश्वर द्वारा इकट्ठा किया गया कूड़े का ढेर है और हमसब इस ढेर में उसके उपयोग में आने के बाद फेंक दिए गए हैं उसके लोक से।
यही 'उपयोग के बाद फेंक दिए जाने की आदिम वासना' हम मनुष्यों के चरित्र में भी संकरित हो गई।
कूड़े के ढेर से याद आया सुबह नीतिशास्त्र पढ़ते हुए एक लाइन पढ़ी,जहाँ लिखा
था -'आत्मचेतना अतृप्ति की भावना में हस्तक्षेप कर उसे इच्छा में परिणत कर देती है'।इसका तात्पर्य हुआ कि कोई अतृप्तता,कुछ अभाव उस सृष्टिकर्ता को भी सालता होगा जो उसने सृष्टि की इच्छा की।
'उसने इच्छा की',मैं नहीं कह रही,यह तो वेदोक्त है–
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
बहरहाल सर्वशक्तिमान तिसपर करूणासागर ईश्वर की कल्पना के विरुद्ध ये नया तर्क पाकर मैं थोड़ी आशान्वित हुई कि अब आस्तिकों को या नीतिशास्त्र के इस बात का खंडन करना होगा या अपने ईश्वर को अतृप्त,अभावग्रस्त मानना होगा।या कि ईश्वर नहीं है।क्योंकि ईश्वर के संग जिन प्रत्ययों का जुड़ाव है,उसके साथ तो उपरोक्त वाक्य व्याघाती हैं।तर्कशास्त्र के नियमों से भी और श्रद्धा से भी।
बहरहाल ऐसे अभावग्रस्त ईश्वर के लिए ये नया तर्क पाकर मैं कुछ गर्वित मुस्कान के बीच पुल पर थोड़ी आगे बढ़ी कि अचानक दिखा नीचे सड़क किनारे लगा नीम का पेड़।नीम के पेड़ से दिखा गांव और गांव का दुआर,जहाँ नीम खड़ा है उदास।तब भी घर के रस्ते से गुजरने वालों पर छाया किये।जिसे माँ ने लगा दिया था केवल एक बार मेरे कहने से।जबकि माँ को लगाना था कोई फलदार पेड़ और पिताजी को इन सब में कोई रूचि नहीं थी।लेकिन मेरी इच्छा जान उन्होंने माँ से कहा,' इहाँ नीमवे लगी बच्ची कहलेस ह त'।माँ ने भी मना नही किया जबकि माँ के इन सब कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता था।
मैं सौभाग्यशाली हूँ मेरे घर में पितृसत्तात्मक का कोई अंश कहीं नहीं था,किसी में नहीं है।जबकि हम छह भाई-बहन हैं,ग्रामीण परिवेश से हैं,माँ अनपढ़ थी,पिता पर अकेले कमाऊ सदस्य होने का दबाव था।इन सबके बाद भी सब बराबरी के हकदार थे पिटने में। कोई भेदभाव इसके अतिरिक्त भी कहीं नहीं था।
तभी चिंता उपजी कि घर नहीं है।फिर तसल्ली दी खुद को कि घर ही होता तो कौन सा मां चिंता कर रही होती कि इतनी रात गये कहाँ गयें!कौन सा पिता देहरी पर बैठे बाट जोह रहे होते!तभी पुल के बेईमानी से हल्के झेंप जाने से बन गये एक गड्ढे से एक स्कूटी को बड़े ध्यान से संभालकर गाड़ी निकालते हुए देखा तो गड्ढा देखा पीछे बैठी बुजुर्ग महिला की आंखों का,जिसमें उभर आई थी खुशी गाड़ी को इस कोमलता से संभाल लेने पर;खुद को गिरने से बचने की खुशी से अधिक।अधिक संभावना है कि मां- बेटे रहे हों,आंखों की चमक तो यही कह रही थी।
पुल तब तक पार हो चुका था।पुल के इस पार को रामनगर कहते हैं।वहाँ दूर तक फैले बाजार से कुछ सब्जी और आम खरीदी और वापसी की राह पकड़ी।वापसी में पुल के दूसरी ओर थी गहन उदासी;जो रात के अंधकार में छाई थी गंगा के ऊपर कि उसका ही एक छोर इतना जगमग और दूसरा छोर इतना अकेलेपन में डूबा!
इस पुल पर समय व्यतीत करना इसी कारण मुझे बहुत प्रिय है कि एक तो यह शहर को मेरे गाँव से जोड़ता है और दूसरा इस पर चलते समय जीवन के उजास और स्याह दोनों पक्ष दिख जाते हैं एक साथ। एक ओर प्रकाश से उल्लासित गंगा,दूसरी ओर अंधेरे से लिपटी उदास गंगा।जीवन भी ऐसा ही है जिसके एक छोर पर है प्रकाश,प्रसन्नता।दूसरे छोर पर है अंधकार,उदासी।इनके बीच एक छोर से दूसरे छोर पर दौड़ता-भागता मनुष्य।
दौड़ने भागने से ध्यान गया पुल पर दौड़ती-भागती गाडियों पर।जो यह पुल न होता,जाने किसके सीने को चाक़ करतीं ये रफ्तार!
रफ्तार के बीच कुछ लोगों को देखा जो पुल पर जगह-जगह ठहरकर न जाने सुस्ता रहे थे कि गंगा के,सांझ के,किनारों के सौन्दर्य को निहार रहे थें!क्या मालूम!!इनमें गाँव-गुवार के कुछ लोग भी थे जो लौट रहे थे दिनभर शहर में मेहनत कर थक के चूर हो अपने घर को।घर से ध्यान आया कि मुझे भी अब तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चलना चाहिए।घड़ी की सुईयां 8:45 पर संगत कर रहीं थीं।यद्यपि मन में लालच उमड़ रहा था कि कुछ और देर ठहरकर गंगा के दोनों किनारों के सौन्दर्य को आंखों में भर लूं कि छुटियाँ समाप्त होने पर कार्यस्थली लौटने पर शाम में जब अकेले अपने कमरे पर बैठ चाय पीऊं तो गंगा अपने इन सब संगी-साथियों संग मेरे कमरे पर अपना मेला सजा ले।
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