Skip to main content

एक दिन नेहरु युवा केन्द्र द्वारा आयोजित युवा संसद कार्यक्रम में...

कभी-कभी जब दिन और रात घने निराशा के बादलों से घिर जाता है।जब आप घर नहीं जा पाते,जबकि आप पिछले 4 महीनों से नहीं गए होते हैं,जबकि ट्रेन की टिकट कंफर्म होती है।किन्तु जिस कार्य के लिए मन को मारना पड़ा,उसमें जब असफ़लता का अंदेशा हो जाता है अथक प्रयासों के बाद भी।जब उस विषय में छात्रों के दर्शन नहीं होते जिसका नाम ही दर्शनशास्त्र है।जब उस इकाई को आप सम्पूर्णता देने में बार-बार मुँह की खाते हैं जो युवाओ को ध्यान में ही रखकर बुना गया हो।

जब रात्रि निद्रा को ही अपना ग्रास बना लेती है,जब दिन अपनी पीठ बचाने में बीत जाता है कि अब कोई घाव पीठ पर नहीं लेने है।जब होली का मेरा मनभावन त्यौहार समीप हो,फिर भी घर जाने में एक हिचकिचाहट हो कि स्मरण हो आता है कि माता-पिता दोनों अब भौतिक रूप से नहीं दिखेंगे और कहीं नहीं दिखेंगे, कभी नहीं दिखेंगे चाहे घर लौटूं कि नहीं।जब इस बात पर कोफ्त होती है कि जिस जगह हूं,उसे मैंने ही स्वप्न के रूप में बुना था बचपन से,संजोया था आँखों में।और इन सब वजहों से हृदय में यह हूक उठती है कि आखिर मैं एक चेतन मन के होते हुए भी कर क्या रहीं हूं,कर क्या पा रहीं हूं और इन प्रश्नों के उत्तर में पाताललोक मेरे आत्मविश्वास को पूरे बल से अपनी ओर खींच लेता है। 

   तब कोई आकर सभा के बीच यह आकर कहता है कि "इस मंच पर 4-5 पुरुषों के बीच दो लड़कियों को बैठे देखकर हमको भी हिम्मत मिला कि हम कुछ कर सकती हूं,हमको इतनी खुशी मिल रही है मैडम आपको देखकर कि हम बता नहीं सकती।हम गांव से आए हैं,जहां कोई सुविधा नहीं पढ़ने की,घरवालों के साथ ही आसपड़ोस वाले हमेशा ताने मारते हैं लड़की होने के लिए।लेकिन तब भी मैडम हम आज यहां यही सीखे हैं कि हम भी जरूर कुछ कर सकती हूं"

यह उसकी भाषा में ही लिखी गई कुछ बातें हैं,सम्भवतः बातों से अनुमान हो कि उसकी भाषा अशुद्ध थी लेकिन भाव और जो प्रेरणा उसे मिली,वह शुद्ध थी।

  लेकिन मेरी बच्ची,तुम्हें नहीं मालूम कि प्रेरणा देने की यह कार्यवाही दोतरफा थी।मैंने भी प्रेरणा ली कि जब तक नौकरी में रहूंगी,अगर वर्ष के हिसाब से भी कुछ लड़कियां,कुछ लड़के प्रेरणा ले सकें तो मैं और मेहनत करूंगी।ऐसा लगा उस बच्ची के रूप में काशीधपति मेरे बाबा स्वयं आकर मुझमें असीम ऊर्जा का संचार कर गए और उन आंसुओं को पोंछ गयें जो इस दुःख में बह रहे थे कि पता नहीं घर जाना होगा कि नहीं अबकी होली पर।और सीखा गयें कि कर्मभूमि हो कि जन्मभूमि,प्रेम कम नहीं होना चाहिए किसी के लिए।लोग भले व्यंग्य कसते रहें कि बाहरी हैं।।

क्या हुआ जो मन घायल है!क्या हुआ जो पीठ छिले हैं!क्या हुआ जो हर मोड़ पर टांग खींचने के लिए लोग खड़े हैं!क्या हुआ जो लोग मेरे अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं!क्या हुआ जो अवसर ढूंढते हैं अपमानित करने के! कुछ नहीं हुआ!और कुछ हो भी नहीं सकता क्यूंकि उस बच्ची के रूप में आज मिर्जापुर से जगतजननी माँ स्वयं अपने साक्षात दर्शन देने बेतिया की मेरे कर्मभूमि पर आईं थीं।और बता गईं कि कर्मभूमि हो कि पुरखों की भूमि,प्रेम कम नहीं होना चाहिए किसी के लिए।लोग भले व्यंग्य कसते रहें कि बाहरी हैं।।

अंत में बस यही उस बच्ची के लिए कि समस्त ब्रम्हांड तुम्हारे लिए लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हो।

और जग के लिए,

      मेरे चींटी प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह न लगाएं,

      मेरी कर्मठता को ठेस लगती है।

                           





 



        

Comments

Popular posts from this blog

दिसम्बर...

  ( चित्र छत्तीसगढ़ बिलासपुर के गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय से;जहाँ पिछले दिनों कुछ समय बिताने का अवसर मिला; यूँ तो कार्य की व्यस्तता के चलते विश्वविद्यालय परिसर ठीक से घूमना तो संभव न हो सका लेकिन कुछ जगहें बस एक नज़र भर की प्रतीक्षा में होती हैं जो दिल चुरा लेती हैं, जैसे परिसर स्थित यह झील जिसके किनारे सूरज डूब रहा था और इसी के साथ डूब रहे थें बहुतों के दिल भी♥)  एक शे़र सुना था कहीं,'कितने दिलों को तोड़ती है फरवरी!यूँ ही नहीं किसी ने इसके दिन घटाए हैं'!शे़र जिसका भी हो,बात बिलकुल दुरूस्त है।ह्रदय जैसे नाजुक,कोमल,निश्छल अंग को तोड़ने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए,चाहे मनुष्य हो या मौसम।  तब ध्यान में आता है दिसम्बर!दिसम्बर जब पूरे वर्ष भर का लेखा-जोखा करना होता है लेकिन दिसम्बर में कुछ ठहरता कहाँ है?दिनों को पंख लग जाते हैं,सूरज के मार्तण्ड रूप को नज़र!सांझे बेवजह उदासी के दुशाले ओढ़ तेजी से निकलती हैं जाने कहाँ के लिए!जाने कौन उसकी प्रतीक्षा में रहता है कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाता दुपहरिया उसे!जबकि लौटना उसे खाली हाथ ही होता है!वह सुन भी नहीं पाती जाने किसकी पुका

शिक्षक दिवस:2023

विद्यार्थियों के लिए... प्रिय छात्र-छात्राओं, मैं चाहती हूँ कि आप अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहें।एकदम क्रिस्टल क्लीयर।जीवन में जो कुछ भी करना है और जैसे भी उसे प्राप्त करना है,उसे लेकर मन में कोई द्वन्द्व न हो। अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास करें।सफल हों तो स्वयं को धन्यवाद देने के साथ उन सभी को धन्यवाद दीजिये जिन्होंने आपपर प्रश्न उठायें,आप की क्षमताओं पर शंका किया।किंतु जिन्होंने धूलीबराबर सहयोग दिया हो,उसको बदले में खूब स्नेह दीजिएगा। अपने लिये गये निर्णयों में असफलता हाथ लगे तो उसे स्वीकार कीजिये कि मैं असफल हो गया/हो गई।मन में बजाय कुंठा पालने के दुख मनाइएगा और यह दुख ही एकदिन आपको बुद्ध सा उदार और करूणाममयी बनाएगा। किसी बात से निराश,उदास,भयभीत हों तो उदास-निराश-भयभीत हो लीजिएगा।किन्तु एक समय बाद इन बाधाओं को पार कर आगे बढ़ जाइएगा बहते पानी के जैसे।रूककर न अपने व्यक्तित्व को कुंठित करियेगा,न संसार को अवसाद से भरिएगा। कोई गलती हो जाए तो पश्चाताप करिएगा किन्तु फिर उस अपराध बोध से स्वयं को मुक्त कर स्वयं से वायदा कीजिएगा कि पुनः गलती न हो और आगे बढ़ जाइएगा।रोना

पिताजी,राजा और मैं

  तस्वीर में दिख रहे प्राणी का नाम ‘राजा’ है और दिख‌ रहा हाथ स्वयं मेरा।इनकी एक संगिनी थी,नाम ‘रानी’।निवास मेरा गांव और गांव में मेरे घर के सामने का घर इनका डेरा।दोनों जीव का मेरे पिताजी से एक अलग ही लगाव था,जबकि इनके पालक इनकी सुविधा में कोई कमी न रखतें!हम नहीं पकड़ पाते किसी से जुड़ जाने की उस डोर को जो न मालूम कब से एक-दूसरे को बांधे रहती है।समय की अनंत धारा में बहुत कुछ है जिसे हम नहीं जानते;संभवतः यही कारण है कि मेरी दार्शनिक दृष्टि में समय मुझे भ्रम से अधिक कुछ नहीं लगता;अंतर इतना है कि यह भ्रम इतना व्यापक है कि धरती के सभी प्राणी इसके शिकार बन जाते हैं।बहरहाल बात तस्वीर में दिख रहे प्राणी की चल रही है। पिताजी से इनके लगाव का आलम यह था कि अन्य घरवालों के चिढ़ने-गुस्साने से इनको कोई फर्क नहीं पड़ता।जबतक पिताजी न कहें,ये अपने स्थान से हिल नहीं सकते थें।पिताजी के जानवरों से प्रेम के अनेकों किस्सों में एक यह मैंने बचपन से सुन रखा था बाबा से कि जो भी गाय घर में रखी जाती,वह तब तक नहीं खाती जब तक स्वयं पिताजी उनके ख़ाने की व्यवस्था न करतें। राजा अब अकेला जीवन जीता है,उसके साथ अब उसकी सं