नैतिक और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से अव्यवस्थित इस संसार में एक प्रश्न गाहे-बगाहे मेरे समक्ष उठता है कि क्या प्रेम कोई वस्तुनिष्ठ चीज है अथवा यह नितांत व्यक्तिगत भाव है?यदि विषयी पर निर्भर है तो वह प्रेम जो किसी के ह्रदय में एक दिन ज्वार बनकर उमड़ा था,अचानक वह लुप्त कहाँ हो जाता है!किंतु व्यक्तिगत स्तर पर यह तथापि कुछ हद तक स्वीकार्य है कि प्रेमिल मन किसी कारण बदल गयें।जैसा कि एक गीत में गीतकार कहता है, "कब बिछड़ जायें हमसफ़र ही तो हैं, कब बदल जायें एक नजर ही तो है!" किंतु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि यह नितांत निजी कोई भाव या धारणा है। वैसे भी इस भाव के व्यक्तिगत न होने का यह भी कारण है कि यदि दो प्रेमी मन से इतर प्रेम की बात करें तो प्रेम समस्त नैतिकता के मूल में है।अतः यह कोई विषयी पर निर्भर भाव मात्र नहीं अथवा कोई निजी अवधारणा नहीं सिवाय इसके कि कौन कब किसके प्रेम में कोई पड़ जाय,यह कोई निश्चित बात नहीं है और यह नितांत व्यक्तिगत चाहना है। किंतु यहाँ समस्या और गंभीर रूप धारण करती है जब प्रेम को वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जाय!और हम एकदम सिरे से नकार भी नहीं सकतें कि यह कोई वस
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