इरशाद कामिल ने लिखा है,'कागा रे कागा रे मोरी इतनी अरज तोसे चुन चुन खाइयो मांस, न तू नैणा मोरे खाईयों जिसमें पिया के मिलन की आस'! कभी कभी मुझे लगता है जैसे इसी कागा चुरा ली हो मेरी नींद हितैषी बन!कि जब तक जिऊँ पियमिलन की आस आंखों में तैरती रहे और मरूँ तो आंखें खुली रहें कि मैं सोती रहूँ और प्राण संग उड़ न जाए मिलन की आस। मैं जो सोचती हूँ कि कभी उस कागा की तलाश में निकलूँ तो पता लगता है सबकुछ अपनी जगह पर है,रास्ते भी,मंजिलें भी।किंतु कदम की ताल अब बिगड़ गई है।यूँ भी माँ कहती थी बचपन में पक्षीयों से डरने पर जब वे आंगन में उतर आते कि कहीं मेरे हाथ की रोटी छीन न ले जाए कि पंक्षियों से भला क्या डरना!वे पलभर कहीं ठहरते हैं फिर कहीं और चल देते हैं।जिस पक्षी से मैं डर रहीं हूँ वो तो अब जाने उड़कर कहाँ चली गई होगी। किंतु फिर भी मुझे सोना है खूब गहरी नींद जो जाने कब से खो गई है और मैं मानो सदियों की थकी!मुझे ऐसी नींद चाहिए जैसी माँ के गर्भ में कि माँ ने जो खाया उससे पोषण मिला,भूख मिटी,अब माँ ही दुनिया से लड़ लेगी मेरे लिए और मैं तबतक खूब गहरी नींद में सोऊं।जो यह भी न हो सके तो एक ऐसी शाम
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