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Showing posts from September, 2022

सृष्टि के सम्मान का किस्सा,सभी का है हिस्सा…

  सृष्टि के सम्मान का किस्सा, सभी का है हिस्सा…  घर को कभी कभी इतने करीने से रख देती हूँ कि छूने से भय लगता है कि मेरे छूने से कमरे और उसके वस्तुओं की तन्मयता न टूट जाए कहीं! उनकी साधना भंग न हो जाए कहीं! आखिरकार जैन दर्शन तो स्वीकार करता भी है कि जड़ में भी चेतना है,भले सुप्त अवस्था में हो। बहुत संवार देने पर मेरा ही कमरा अजनबी लगने लगता है मुझसे। सुप्त चेतना से याद आया मनुष्यों की चेतना ही भला कौन सी जाग्रत है! तब सोचती हूँ कौन अधिक जड़ है या कहें कि कौन वास्तव में जड़ है? क्योंकि देखा जाए तो भारतीय दर्शन में एक पदार्थवादियों को,यथा- चार्वाक, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसकों को छोड़ दें तो बाकी जड़त्व पर बहुत आग्रहित नहीं हैं। तब यह प्रश्न मेरे सम्मुख सुरसा के जैसे मुंह बाए खड़ी हो जाती है कि जैनो, बौद्धों, अद्वैतियों की परिभाषा में कि आखिर जड़ है कौन? चेतनारहित दिखने वाली वस्तुएँ या मनुष्य! क्योंकि चेतना तो दोनों जगहें सुप्त हैं।     जड़ को यह कहकर कि उसमें सुप्त है चेतना, उन्हें वस्तु या विषय बना देना यह तो अन्याय है किसी के अस्तित्व के साथ! क्योंकि सोई हुई चेतना तो मनुष्य में भी है। पु

मैं कैसी हूँ...

छवि: गोरखपुर शहर के गोरखनाथ मंदिर के परिसर में स्थित सरोवर की।  मेरा एक विशेष स्वभाव रहा है सदैव से कि उसी के पास बैठ पाते हैं या बातें करते हैं जिससे मन मिलता है।अन्यथा अकेले ही रहना पसंद करती हूँ।मुझे स्मरण है छात्रावास के दिनों में मैं एक जूनियर के कमरे पर काफी देर से और बड़े इत्मिनान से बैठी थी,तभी मेरी दोस्त आती है और कहती है 'तुम्हें मैंने सब जगह ढूंढा और तुम यहाँ बैठी हो!' फिर वह मेरी जूनियर से मुखातिब हो कहा कि 'तुममे जरूर कुछ बात है जो यह(मैं) यहाँ बैठी है इतने अनौपचारिक रूप से।' यही हाल रिश्तेदारों के सम्बन्ध में भी है।अभी भी घर जाती हूँ तो दरवाजे तक उठकर जाने की जहमत नहीं उठाती कि कौन आ-जा रहा है।मुझे बस उस थाली से मतलब रहता है जो सुबह-शाम भाभी देती हैं।निश्चित रूप से इस कठोर और कड़वे संसार में भाई की ब्याहता भोजन परोस कर दे दें वह भी मेरी रूचि का,निश्चित ही यह मेरे पुण्य कर्मों के प्रतिफल से अधिक उनके संस्कार की बदौलत हैं। बहरहाल,  मैं अपने कार्यस्थल भी चुपचाप जाती हूँ,अपना काम किया और घर लौट आती हूँ।सिवाय दो-तीन आत्मीयजनों के पास कभी-कभार बैठ जाने के।वह भी

सुख

    छवि: पाकिस्तानी ड्रामा सीरियल 'सुनो चंदा',भाग दो से।  'सुख' बस इतना ही है,भगोने से चाय को कप में डालने तक। उसके बाद सुख की तीव्रता वैसे ही कम होती जाती है जैसे जाड़े के मौसम में पलभर में चाय ठंडी हो जाती है।क्या नही? सोचकर देखें जरा!  हम कितने खुश होते हैं,एक उन्माद जैसी अवस्था में होते हैं जब गरमागरम चाय को कप में उड़ेल रहे होते हैं कि अब चाय के कप संग बैठकर इत्मीनान से उन सब बातों पर सोचेंगे जिन्हें जिंदगी की आपाधापी में हमने सोचने तक से टाला होता है।कितने मुतमईन होते हैं कि एक कप चाय पीने भर तक यह जीवन केवल और केवल अपना होगा।जहाँ हम बंटे नहीं होंगे तमाम दुनियावी रिश्तों में और उत्तरदायित्वों में।हम बैठेंगे चाय पर उसके साथ जिसके साथ बैठना चाहते हैं, भले वह व्यक्ति पास हो न हो!  किंतु जैसे ही चाय कप में भर जाता है, हम भी निकल आते हैं इस सुकुन भरे सोच से और हमें घेर लेती है ये दुनिया। फिर तो घूंट दर घूंट उतरती जाती है न केवल हलक में चाय बल्कि उसके साथ फुरसत के पल भी खाली होते जाते हैं समय के कप से।  यहाँ मुझे गोपालदास नीरज के गीत 'कारवां गुजर गया',  की पंक्त