सृष्टि के सम्मान का किस्सा, सभी का है हिस्सा… घर को कभी कभी इतने करीने से रख देती हूँ कि छूने से भय लगता है कि मेरे छूने से कमरे और उसके वस्तुओं की तन्मयता न टूट जाए कहीं! उनकी साधना भंग न हो जाए कहीं! आखिरकार जैन दर्शन तो स्वीकार करता भी है कि जड़ में भी चेतना है,भले सुप्त अवस्था में हो। बहुत संवार देने पर मेरा ही कमरा अजनबी लगने लगता है मुझसे। सुप्त चेतना से याद आया मनुष्यों की चेतना ही भला कौन सी जाग्रत है! तब सोचती हूँ कौन अधिक जड़ है या कहें कि कौन वास्तव में जड़ है? क्योंकि देखा जाए तो भारतीय दर्शन में एक पदार्थवादियों को,यथा- चार्वाक, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसकों को छोड़ दें तो बाकी जड़त्व पर बहुत आग्रहित नहीं हैं। तब यह प्रश्न मेरे सम्मुख सुरसा के जैसे मुंह बाए खड़ी हो जाती है कि जैनो, बौद्धों, अद्वैतियों की परिभाषा में कि आखिर जड़ है कौन? चेतनारहित दिखने वाली वस्तुएँ या मनुष्य! क्योंकि चेतना तो दोनों जगहें सुप्त हैं। जड़ को यह कहकर कि उसमें सुप्त है चेतना, उन्हें वस्तु या विषय बना देना यह तो अन्याय है किसी के अस्तित्व के साथ! क्योंकि सोई हुई चेतना तो मनुष्य में भी है। पु
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