नीत्शे… सत्य कुरूप होता है।हम कला की शरण में इसलिए जाते हैं कि सत्य कहीं हमारा सत्यानाश न कर दे।—–‘फ्रेडरिक नीत्शे। यह वक्तव्य देने वाले दार्शनिक नीत्शे सत्यम, शिवम,सुन्दरम को किस तरह परिभाषित करते?, प्रत्येक देश- काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति-विचारक- दार्शनिक-साहित्यकार का अपना सत्य होता है।नीत्शे इसपर क्या कहते, या किस तरह इसे समझाते, ये तो हम और आप एक अनुमान लगा ही सकते हैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से।किन्तु मेरे विचार में सत्य को जानना गहनतम दुःख के बोध में डूबना है, यह दुख-बोध सत्य को जानने का तार्किक परिणाम है।एक सम्वेदनशील व्यक्ति के लिए इस जीवन और उसके हर पक्ष की नग्न सत्यता को जानने के प्रतिफल में शिव और सुंदर तक पहुंचने के पहले उसे यदि कुछ मिलता है तो वह आत्मपीडा है।और मजे की बात ये है कि संसार-सम्बंध- प्रेम- मित्रता के ताने-बाने से बुने गए इस संसार की कुरूपता में उतरने से,जीते जी इस जीवन से आत्म निर्वासित होकर जीना और यह पीड़ा भोगना अधिक श्रेयस्कर लगता है। हो सकता है इस तरह जीना सम्भवतः इसलिए ठीक लगता हो कि यह सत्य से शिव और सुंदरम तक पहुंचने का मार्ग हो! हो सक
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