माह आश्विन (क्वार) का है और पक्ष पितरों का चल रहा है। समक्ष गिर रहीं संभवतः यह बरखा की बूंदों का मानसून के अपने घर वापसी के पहले का रूदनगीत हो।घर से कार्यस्थल जाने के रस्ते में मैं देख रही थी तेजी से बरखा की बूंदो को धरती पर गिरते हुए।मानो धरती के गले मिलने को कितनी आतुर हों कि अब मिलेंगे छह-सात माह बाद!मानो कह रहीं हों इस विदा की बेला में ढंग से मिल तो लें!यह भी कि सबके हिस्से आना चाहिए ठीक ढंग से अलविदा कहने का हक़।प्रकृति हो कि मनुष्य। इसके बाद अब उत्सवों के दिन लौटेंगे।ऋतुएँ पहले शरद का सुहानापन,फिर हेमंत की आत्मकरूणा,और पुनः शिशिर की आत्मदैन्यता ओढ़े-लपेटे आयेंगी अपने ठिठुरते दिनरात को लिए।धीरे-धीरे दिन की लंम्बाई घटती ही रहेगी।सब समेटा करेंगे इन दिनों में अब खुद को जल्दी-जल्दी।दिनमान छोटे हो जायेंगे।और रातें जाने किस शोक में गहरी और दीर्घ। धूप का भी स्वर कोमल हो जाएगा।देखूंगी धूप के चढ़ाव के उतार को।किंतु मैं जिसके मन को भाता है दिनों का फैलाव और धूप का तेज,उचाट मन लिये देखूंगी दिनों को स्वयं को समेटते हुए शीघ्रता से,बेमन से।गोया जीवन को देखती हूँ उचाट मन से।यूँ भी भादो क्वार
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